आणी मात्र में जो सुल्लिंग तथा बीलिंग से सब है, बन होतों के शारीरिक तथा मानसिक कारण की जो स्वाभाविक तथा आकृतिक आवश्यकता है, इसी आवश्यकता अपनी-अपनी तथा अविकसित स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न सामाजिक रूप दिये हैं, इन सभी का नाम “विवाह” है।
कहते है कि किसी समय मानकों में भी विवाह नाम की संख्या नहीं थी, जैसे जी में भी आज भी नहीं है, और सभी मानवों में भी यह आज नहीं है जहाँ ‘सम’ या ‘सजन’ को जीवन का अनिवार्य अंग नहीं माना जाता, नदी ‘विवाह’ बेयों को परी या मजहब के पतों से मुफ कर दिया गया है, लेकिन सर्वत्र ऐसा नहीं ही हुआ।
” या ‘महल’ ने जीवन मेंडिसा है, विवाद भी इसका वाह नहीं। किन्तु मार्मिक विधि से विवाह संस्कार हुआ हो, न हुआ, तब के मिलन का परिणाम वही होता है, जो अभी दोहा |
बीच-बीच में ऐसा भी अनुभव होता ही है कि विवाह संसार से भी पहले ” हुआ रहता है। विवाह संस्कार इस ‘मिलन का सामाजिक रजिस्ट्रेशन मात्र होता है।
इसलिये बौद्ध धर्म से ‘विवाद’ को एक प्राकृतिक आवर पूर्वक अंगीकार किये गये सामाजिक से अधिक कुछ नहीं माना गया
हिन्दुस्तान में मुल्लानी निकाह बहाते हैं, जो जान सकते हैं, रोहित जी मंगल रवाते हैं, और बाहरी साहव विवाह करवाते हैं। सब लोगों की समझ से परे है समाज में बिना जी के विवाह कराये भी विवाह हो सकते हैं। बौद्ध समाज का सर्ग गुरु अवश्य होता है। किन्तु वह समाज का साया सुरोदिन कुछ भी नहीं होता। सुना है, कुछ दिन
पहले किसी किसी से शादी कर ली थी, या किसी ने किसी आकुलला दुयल से। वह नीड भी कोई राजा सही मालूम होता है कि अपनी ‘माला’ को गुस्य मूलकर उसने एक दूसरी ‘ली’ को मो अपना लिया। पहली ‘भाजीला पिय हुई। उसने अपने ‘छलिया’ पति के खिलाफ कोर्ट में हावा हायर कर दिया कि इससे एक ‘सनी’ के रहते दूसरी ‘पत्नी को अपना कर ‘दिपाली विवाह’ का कानूनी अपराध किया है।
हमारी दृष्टि में जहालत को साहिए था कि वह ऐसे हरजाई, निरंकुश, प्रलिया की उसकी उच्छृंखलता का दण्ड देसी और ऐसा हण्ट देती कि कोई दूसरा जो किसी दूसरी कुराला के साथ ऐसा खिलवाड़ करने को दुस्साहस न करता ।
किन्तु अदालत ने इस अपन पर किसी से मान से विचार कर इसे हिन्दु विवाह तथा बौद्ध विवाह पद्धतियों के कीस में इसके द्वारा हुए अपराध से साफ बरी कर दिया।