रामायण के अनुसार चैत्र महाने में राम अयोध्या आये थे। वाल्मीकि रामायण बताता है कि,
“चैत्रः श्रीमानय मासः पुण्य पुष्पित काननः । यौवराज्याय रामस्य सर्व मेवोयकल्पायताम् ।।”
अर्थात, चैत्र महिने में रावण को जीतकर राम अयोध्या आए थे और तब लोगों ने उनका फुलों से स्वागत किया था|
लेकिन, दीपावली तो आश्विन माह में मनाते हैं। इसका मतलब यह है कि, अयोध्या का और दिपावली का कोई भी संबंध नहीं है।
वास्तव में, तथागत बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के बाद अपनी कपिलवस्तु नगरी में लौट आए थे। तथागत कपिलवस्तु आनेवाले है, यह खबर सुनते ही उनके पिता शुद्धोदन ने नगरी को उनके स्वागत के लिए सजाया था। जब अश्विन माह में तथागत बुद्ध कपिलवस्तु आए, तो शुद्धोदन ने अच्छे अच्छे मिष्ठान्न बनवाए और रात को दिप जलाकर नगरी को रोशनी से जगमगाया।
बुद्ध के जीवन की यह यादें अशोक काल में ज्यादा तौर पर मनाई जाती थी। बुद्ध ने राजकाज त्यागकर चिवर धारण किया था, तो सम्राट अशोक और सम्राट हर्षवर्धन भी हर पांचवें साल “पंचवार्षिका” नामक बडा उत्सव मनाते थे और अपना संपूर्ण राजकाज त्यागकर कुछ दिनों के लिए भिक्खु बन जाते थे। (Ref. The legend of King Asoka- John S Strong)
बुद्ध की कपिलवस्तु नगरी भेंट को ध्यान में रखकर सम्राट अशोक ने भी अश्विन माह में 84000 स्तुप बनाने का निर्णय लिया था और उसे अश्विन माह में ही पुरा कर दिया था। सभी स्तुप बनाने के बाद उनपर दिप जलाएं गये। महावंस में वह नजारा ऐसा बताया है कि, अशोक पाटलिपुत्र में खडे होकर चमकते हुए सभी स्तुपों को देखने लगे और सारा जम्बूद्वीप दिपों की रोषनी के चकचौंध में चमक उठा। लोगों ने खुशियों में लिप्त होकर उसे “दिपोत्सव” के रूप में मनाया। (Ref. Geiger, tr., Mahavamsa, p.52)
सम्राट हर्षवर्धन ने भी इस उत्सव को अपने नाटक ‘नागानंद’ में “दीपप्रतिपदोत्सव” कहा है।
सम्राट अशोक ने विजयादशमी के बाद बुध्द की जन्मभूमि लुंबिनी को पैदल चलकर भेंट दी थी। उसके बाद, अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में लौटने पर उन्होंने 84000 स्तुप बनाने का निर्णय लिया था। लोग बुद्ध को बहुत चाहते थे, लेकिन दूरदराज के प्रदेशों से सभी लोग लुंबिनी नहीं जा सकते थे। उस समय लोग बुद्ध की पूजा स्तुप के रूप में करते थे। लोगों को उनके ही प्रदेशों में बुद्ध का दर्शन हो जाए, इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर अशोक ने बुथ्द के 84000 वचनों को ध्यान में रखकर उतने ही स्तुप बनाने का ऐलान किया। इसकी शुरुआत उन्होंने धरती (वसू) में बरास खोदकर किया, जिसे आजकल “वसूबारस” (कोनशिला का कार्यक्रम) कहा जाता है।
सम्राट का ऐलान सुनकर लोग लाखों की संख्या में राजधानी पाटलिपुत्र में एकट्ठा हुए और सम्राट के साथ साथ सभी ने अपनी अपनी पूंजी (धन) दान में दे दी। सभी तरफ से धन की इतना बरसात हुए की धन की बडी राशि जमा हुई। इसलिए लोग उस यदगार पर्व को “धन की राशि (धनतेरस)” कहने लगे।
धन जमा होने के बाद उसकी गिनती की गई और बुद्ध की माता महामाया की पूजा की गई, जिसे आजकल “लक्ष्मीपूजन” कहा जाता है। आज भी लोग धन की देवता के रूप में बुद्धमाता महामाया की पुजा महालक्ष्मी देवता के रूप में करते हैं, जिसे लक्ष्मीपूजन कहा जाता है| बौद्ध भिक्खु रात में देर तक धम्म का मार्गदर्शन करते थे| रात में अन्य प्राणी सोते हैं, लेकिन उल्लू पंछी जागते रहता है| इसलिए, उल्लू पंछी को धम्म का प्रतीक माना जाता है और बौद्ध सम्राट मिनांडर ने अपने शिक्कों पर उल्लू पंछी को अंकित किया था|
स्तुपों के साथ साथ तीन जगहों पर बुद्ध के चरणों का (बुद्धपाद का) भी निर्माण करने का फैसला पाटलिपुत्र की सभा में दुसरे दिन लिया गया। महाबली सम्राट ने दुनिया में तीन जगहों पर बुद्धपाद स्थापित किए थे। महाबली अशोक (बलि) ने बुद्धगया के बुद्धपदों का प्रतिरूप (प्रतिपद) अनेक जगहों पर बनाया था, इसलिए लोगों ने धनतेरस के दुसरे दिन को “बलिप्रतिपदा” के रूप में याद रखा। “बलिप्रतिपदा” मतलब महाबली सम्राट अशोक (बली राजा) द्वारा स्थापित बुद्ध के प्रतिपदों को पुजने का दिन है|
लोग खुश हुए और कहने लगे की महाबली सम्राट अशोक का राज ऐसे ही बार बार पिढी दर पिढी आता रहे, वह कभी खत्म न हो। ब्राम्हणवादी इंद्र ने महान सिंधू सभ्यता नष्ट कर दी थी, जिसकी यादें लोगों के दिमाग पर अशोक के समय भी तरोताजा था। इसलिए लोग कहते थे कि, इंद्र (इडा) की पिडा अब कभी न आए, बल्कि महाबली अशोक का राज ही बार बार आए।
स्तूपों के निर्माण का बडा कार्य पुरा होने से जीवन का एक बडा उद्देश्य पुरा हुआ था, जीवन का एक बडा पाडाव पूर्ण हो चूका था, इसलिए अशोक ने उसे “पाडाव या पाडवा” के रूप में मनाया। आज भी दिपावली के आखिर में पाडवा उत्सव मनाया जाता है|
बुद्ध की याद में दिपोत्सव पुर्ण होने पर सम्राट अशोक ने धम्मप्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र को दक्षिण भारत में और पुत्री संघमित्रा को सिलोन के लिए भेजा था| दोनों भाई बहन की अंतिम भेंट का उत्सव “भाई दुज” मनाया गया, जिसे आजकल भाऊबीज कहा जाता है|
अशोक की याद में यह पांच घटनाएं पांच दिन के दीपावली उत्सव के रूप में लोग बाद में मनाने लगे। सम्राट हर्षवर्धन के समय भी अशोक के दिपोत्सव को दिपप्रदिपोत्सव के रूप में मनाया जाता था| इस तरह दिपावली उत्सव प्राचीन बौद्ध उत्सव है।
अशोक का महान इतिहास मिटाने के लिए अशोक के लगभग एक हजार सालों बाद 8 वी सदीं में “वामनपुराण” कथा लिखा गई थी। अशोक ने दुनिया में तिन जगहों पर (दक्षिण भारत में नागार्जुनकोंडा में, अफगानिस्तान के नवविहार स्तूप में और अरबस्तान में) बुथ्द के चरण (बुद्धपाद) स्थापित कर दिए थे और उनके माध्यम से संपूर्ण दुनिया को जीत लिया था (Ashoka’s 2nd conquest by the Dhamma, जिसे अशोक का धम्मविजय या Dhamma conquest कहा जाता है)।
अशोक के धम्मविजय को भूलाने के लिए विष्णु ने वामन अवतार के रूप में तिन पदों में दुनिया जीत ली थी, ऐसी झूठी, काल्पनिक और मनगढंत कहानी लिखी गई थी। इस काल्पनिक पुराणकथा का और दिपावली का कोई भी संबंध नहीं है। बौद्ध इतिहास मिटाने के उद्देश्य से ऐसी झूठी पुराणकथाएं लिखी गई है| दिपावली का और ब्राह्मण धर्म का कोई भी संबंध नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण धर्म अंधेरे का धर्म है| बौद्ध धर्म ज्ञान के प्रकाश का धर्म है, इसलिए बौद्ध परंपरा में दिपोत्सव को महत्व है| इस तरह, दिपावली पूर्ण रूप से बौद्ध उत्सव है।
-डॉ. प्रताप चाटसे, बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क | -Dr. Pratap Chatse, Buddhist International Network | Buddhism | Buddhist Bharat |