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बौद्ध परंपरा के अनुसार परिनिर्वाण के अनंतर ही राजगृह में प्रथम संगीति हुई थी और इस अवसर पर विनय और धर्म का संग्रह किया गया था। इस संगीति की ऐतिहासिकता पर इतिहासकारों में प्रचुर विवाद रहा है किंतु इस विषय की खोज की वर्तमान अवस्था को इस संगीति की ऐतिहासिकता अनुकूल कहना होगा, तथापि यह संदिग्ध रहता है कि इस अवसर पर कौन कौन से संदर्भ संगृहीत हुए।

दूसरी संगीति परिनिर्वाण सौ वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई। महावंस के अनुसार उस समय मगध का राजा कालाशोक था। इस समय सद्धर्म अवंती से वैशाली और मथुरा से कौशांबी तक फैला हुआ था। संगीति वैशाली के भिक्षुओं के द्वारा प्रचारित १० वस्तुओं के निर्णय के लिए हुई थी। ये १० वस्तुएँ इस प्रकार थीं :

शृंगि-लवण-कल्प, द्वि अंगुल-कल्प, ग्रामांतरकल्प, आवास-कल्प, अनुमत-कल्प, आचीर्ण-कलप, अमंथित-कल्प, जलोगीपान-कल्प, अदशक-कल्प, जातरूप-रजत-कल्प।

इन कल्पों को वज्जिपुत्तक भिक्षु विहित मानते थे और उन्होंने आयुष्मान् यश के विरोध का तिरस्कार किया। इसपर यश के प्रयत्न से वैशाली में ७०० पूर्वी और पश्चिमी भिक्षुओं की संगीति हुई जिसमें दसों वस्तुओं को विनयविरुद्ध ठहराया गया। दीपवंस के अनुसार वज्जिपुत्तकों ने इस निर्णय को स्वीकार न कर स्थविर अर्हंतों के बिना एक अन्य ‘महासंगीति’ की, यद्यपि यह स्मरणीय है कि इस प्रकार का विवरण किसी विनय में उपलब्ध नहीं होता। कदाचित् दूसरी संगीति के अनंतर किसी समय महासांघिकों का विकास एवं संघभेद का प्रादुर्भाव मानना चाहिए।

दूसरी संगीति से अशोक तक के अंतराल में १८ विभिन्न बौद्ध संप्रदायों का आविर्भाव बताया गया है। इन संप्रदायों के आविर्भाव का क्रम सांप्रदायिक परंपराओं में भिन्न भिन्न रूप से दिया गया है। उदाहरण के लिए दीपवंस के अनुसार पहले महासांधिक पृथक् हुए। उनसे कालांतर में एकब्बोहारिक और गोकुलिक, गोकुलिकों से पंजत्तिवादी, बाहुलिक और चेतियवादी। दूसरी ओर थेरवादियों से महिंसासक और वज्जिपुत्तक निकले। वज्जिपुत्तकों से धम्मुत्तरिय, भद्दयातिक, छन्नगरिक, एवं संमितीय, तथा महिंसासकों से धम्मगुत्तिक, एवं सब्बत्थिवादी, सब्बत्थिवादियों से कस्सपिक, उनसे संकंतिक और संकंतिकों से सुत्तवादी। यह विवरण थेरवादियों की दृष्टि से है।

महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से संगीति (सम्मेलन) की प्रथा चल पड़ी। इन्हें धम्म संगीति (धर्म संगीति) कहा जाता है। संगीति का अर्थ है ‘साथ-साथ गाना’।

बौद्ध संगीतियों की संख्या एवं सूची, अलग-अलग सम्प्रदायों (और कभी-कभी एक ही सम्प्रदाय के भीतर ही) द्वारा अलग-अलग बतायी जाती है। एक मान्यता के अनुसार बौद्ध संगीति निम्नलिखित हैं-
  • प्रथम बौद्ध संगीति – राजगृह में (483 BC)
  • द्वित्तीय बौद्ध संगीति- वैशाली (383 BC)
  • तृतीय बौद्ध संगीति- पाटलिपुत्र (251 AD)
  • चतुर्थ बौद्ध संगीति- कुण्डलवन(कश्मीर) ई. की प्रथम शताब्दी
  • पांचवी बौद्ध संगीति- उज्जैन (172 AD)

बौद्ध संगीतियाँ

पूर्वकालीन बौद्ध धर्म के वृतांत में छह बौद्ध संगीतियो का वर्णन किया गया है। यह वृतांत पहली सहस्राब्दी ई.पू. के आरम्भ से 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में ऐतिहासिक बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद की अवधि के दौरान विस्तारित हुआ था। यह एक सांप्रदायिक संघर्ष और संभावित फूट की भी कहानी है जिसके परिणामस्वरूप दो प्रमुख सम्प्रदायों, थेरवाद और महायान की उत्पत्ति हुई.

पूर्वकालीन बौद्ध धर्म के वृतांत में छह बौद्ध संगीतियो का वर्णन किया गया है। यह वृतांत पहली सहस्राब्दी ई.पू. के आरम्भ से 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में ऐतिहासिक बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद की अवधि के दौरान विस्तारित हुआ था। यह एक सांप्रदायिक संघर्ष और संभावित फूट की भी कहानी है जिसके परिणामस्वरूप दो प्रमुख सम्प्रदाय, थेरवाद और महायान की उत्पत्ति हुई।
कुल 6 बौद्ध संगीतियो का आयोजन किया गया था। छह बौद्ध संगीतियो का विवरण इस प्रकार है:

प्रथम संगीति

राजा अजातशत्रु के संरक्षण में 483 ईसा पूर्व के आसपास, बुद्ध के महापरीनिर्वाण के तुरंत बाद ही प्रथम संगीति का आयोजन किया गया था। इसकी अध्यक्षता एक भिक्षु महाकश्यप द्वारा की गयी थी। संगीति का आयोजन राजगृह के सत्तापणी गुफा में किया गया था। संगीति के आयोजन का उद्देश्य बुद्ध की शिक्षाओं (सुत्त) और नियमों का संरक्षण था। इस संगीति के दौरान, बुद्ध की शिक्षाओं को तीन पिटकों में विभाजित किया गया था। प्रथम संगीति के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 500 वरिष्ठ भिक्षुओं ने विनय-पिटक को ग्रहण किया था। सुत्त- पिटक को बुद्ध की सटीक शिक्षण के रूप में याद करने तथा आने वाली भिक्षुओं की पीढ़ियों के लिए याद रखा जाएगा।

दूसरी बौद्ध संगीति

दूसरी बौद्ध संगीति का आयोजन प्राचीन शहर वैशाली, जो अब नेपाल की सीमा से लगे उत्तर भारत के बिहार राज्य में स्थित है, में किया गया था। राजा कालाशोक के संरक्षण में इसकी अध्यक्षता सबाकमी ने की थी। इस संगीति का आयोजन 383 ई.पू. किया गया था। इसका आयोजन विशेष रूप से भिक्षुओं को पैसे संभालने की अनुमति देने के लिए मठवासी प्रथाओं पर चर्चा करने हेतु किया गया था।

तीसरी बौद्ध संगीति

तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन 250 ईसा पूर्व में राजा अशोक के संरक्षण के तहत पाटलिपुत्र में किया गया था। इसकी अध्यक्षता मोग्गलीपुत्त तिस्सा द्वारा की गयी थी । यह संगीति त्रिपिटक से सम्बंधित  टिप्पणियां को संग्रहीत करने के लिए आयोजित की गयी थी।

चौथी बौद्ध संगीति

चौथी बौद्ध संगीति 72वीं ईस्वी में कश्मीर के कुंडलवन में आयोजित की गयी थी। इसकी अध्यक्षता वासुमित्र ने की थी जबकि अश्वघोष उनका सहायक था। संगीति का आयोजन कुषाण साम्राज्य के कुषाण राजा कनिष्क के संरक्षण के तहत किया गया था। इस दौरान बौद्ध धर्म को दो संप्रदायों महायान और हीनयान में विभाजित हो गया था।

पांचवीं बौद्ध संगीति

पांचवीं बौद्ध संगीति राजा मिंडन के संरक्षण के तहत साल 1871 में मांडले, बर्मा में आयोजित की गयी थी। इसकी अध्यक्षता जगराभीवाम्सा, नरींधाभीधाजा और सुमंगलासामी द्वारा की गयी थी। इस संगीति के दौरान, 729 शिलाखंड बौद्ध शिक्षाओं के साथ उत्कीर्ण किये गये थे।

छठी बौद्ध संगीति

छठी बौद्ध संगीति का आयोजन 1954 में बर्मा के काबाऐ, यगूंन में किया गया था। इसका आयोजन बर्मा की सरकार के संरक्षण के तहत हुआ था और इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री यूनू द्वारा की गयी थी। संगीति का आयोजन बौद्ध धर्म के 2500 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में किया गया था।

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