जूठन खा रहे थे जब तक
जूठन खा रहे थे जब तक तो
सब चुप थे , सब ठीक था.
जूठन लिख दिया
तो बवाल हो गया.
वो , कहते हे अक्सर मुझसे
की ये तुमने साहित्य का
क्या मजाक बना रखा हे
तुम साहित्य का
मतलब बिगाड़ रहे हो.
बताओ, साहित्य भी
कभी दलित होता है ?
में चुटकी लेता हु की यार
जब इस देश में कुदरत
की श्रेष्टम रचना मनुष्य
जब नीच, शूद्र, दलित, मलेछ
और अछूत हो सकता है
तो ये साहित्य
कौन बड़ी बात है.
दरवाज़े पर उजियारा है,
कब से उजियारा है.
सत्ता का, साहित्य का.
मेरे पास तो एक खौफनाक,
ठिठुरती लम्बी काली रात है.
पर अब मुझे फख्र है, नाज है
क्योंकि अब मेरे पास
कलम है, अल्फ़ाज़ है.
अब तुम्हे डर है.
अब तुम्हे डर है.
क्योंकि एसी कमरे में,
मखमली बिस्तर पर
बैठकर कॉफी पीते हुए
जिस गरीबी, लाचारी और
शोषण का सौंदर्यात्मक
वर्णन जो तुमने किया है.
वो मेरे जीवन की एक
छोटी – सी दास्तान के सामने
फीका दिखाई पड़ता है.
मेरे करोड़ों, करोड़ों
देवी – देवताओं को
अपने भीतर समा
लेने वाली जिस गाय का
दूध पीकर तुम्हारी बनभोति
ने सिर्फ कर्मकांड रचे हे
मरने के बाद उसी गाय को
मुन्नर चाचा की छुरी से भी तेज
गिद्धों की चोंच से बचते हुए,
उसी की मास की सड़ांध में
हमारे मुर्दहिया ने कितने
तुलसी उपजे है
अब तुम्हें डर है
क्योंकि मेरी कलम
तुम्हारे इतिहास के
पन्नों को चीरती हुई.
तुम्हारे सरे कारनामो को
इंसानियत के तराजू में
बराबर तौलती है.
मेरे अल्फाजों में ले है, धार है,
तीखापन है एकलव्य
की तीरों की तरह.
मेरी कलम द्रोणाचार्य के
गरुता के सारे राज खोलती है.
और तुम अब बोखला
कर कहने लेंगे हो
की मेरी कलम बहुत बोलती है.