Mon. Dec 23rd, 2024

किसी विषय में आदमी की कुछ भी जानकारी न हो, तो यह अनुताप का विषय नहीं होता, किन्तु जानकारी न हो और कोई समझे कि वह सचमुच जानकार है, तो यह असन्धिग्ध रूप से अनुताप का ही नहीं, संताप का भी विषय है। धम्मपद के बालवग्ग की एक गाथा है-

यो बालो मञ्ञती बाल्यं पण्डितों वापि तेन सो ।

बालो च पण्डितमानी च त वे बालोति वुच्चति ॥

(अज्ञ आपने आपको अज्ञ माने, तो वह भी पण्डित है। किन्तु असली अझ या मूर्ख वह है जो है, तो अज्ञ, किन्तु अपने आपको पण्डित मानता है।)

ऐसे ही अज्ञों ने या पण्डितमानी मूर्खों ने बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में बहुत सी भ्रान्त धारणायें फैला रखी हैं, जिनमें से दो चार का निराकरण नीचे किया जाता है।

बौद्ध धर्म के बारे में पहली भ्रान्त धारणा तो यही है कि यह “त्रिक्षुओं का ही धर्म” है। ऐसी बात नहीं, दुनिया में जो करोड़ों बौद्ध हैं, वे सब ‘भिक्षु’ ही नहीं हैं। बौद्ध समाज की चातुवर्णी व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसा कोई वर्ण-विभाग नहीं। यहां सभी मनुष्य बराबर हैं । उनमें जो प्रव्रजित होते हैं, वे ‘भिक्षु’ कहलाते हैं। हां, उनमें जो प्रव्रजित होती है, वे ‘भिक्षुणियां’ कहलाती हैं। इसी प्रकार जो बौद्धगृहस्थ हैं, वे ‘उपासक’ तथा ‘उपासिकायें’ कहलाते हैं।

क्योंकि बुद्ध धर्म के चारों आर्य सत्य, दुःख- सत्य, दुःख समुदय-सत्य, दुःख-निरोध- सत्य, दुःख-निरोध – गामिनी पटिपदा-सत्य के नाम से जाने जाते हैं। इसलिये बुद्ध-धर्म के बारे में जो दूसरी मिथ्या धारण प्रचलित है वह यह है कि बुद्ध धर्म दुःख-वाद का ही धर्म है, बुद्ध-धर्म निराशावाद का धर्म है। जैसे रोग की स्थिति को बिना स्वीकार किये उसका निदान और उसकी चिकित्सा नहीं हो सकती। उसी प्रकार दुःख का अस्तित्व स्वीकार किये बिना उसका निवारण भी नहीं हो सकता । इन्हीं अर्थों में बौद्ध धर्म दुःख के अस्तित्व पर जोर देता है। यह न दुःख-वाद है और न निराशा-वाद । जो लोग बौद्ध-धर्म को ‘निराशावाद’ समझने और कहने की गलती करते हैं, वे ‘निराशावाद’ के भी सही अर्थ से परिचित नहीं । निराशावाद कहता है कि दुःख है और दुःख से मुक्ति नहीं । बुद्ध-धर्म तो कहता है कि दुःख है और दुःख से मुक्ति भी है । तथागत की अपनी देशना है, ‘भिक्षुओं, दो ही चीजें मै सिखाता हूं, दुःख है और दुःख से मुक्ति भी है।’ जो धर्म इसी छह फुट के शरीर में दुःख से मुक्त होने का मार्ग दिखाता हो, उससे बढ़कर आशावादी दूसरा कौनसा धर्म हो सकता है।

दुःख है, तो प्रश्न पैदा होता है कि क्या दुःख अहेतुक है, बिना किसी कारण के है ? बौद्ध धर्म दुःख को अहेतुक नहीं मानता । तो क्या दुःख ईश्वर-कृत है ? बौद्ध धर्म ईश्वर के अस्तित्व

को ही स्वीकार नहीं करता, तो दुःख के ईश्वर कृत होने को कैसे स्वीकार कर सकता है? कहने बालों का कहना है कि भगवान बुद्ध ने ईश्वर का कहीं खण्डन नहीं किया, वे ईश्वर के बारे में केवल मौन रहे हैं। इस कथन में इतनी सच्चाई जरूर है कि पालि त्रिपिटक में ईश्वर का अधिक खण्डन-मण्डन नहीं हैं । उसका कारण है कि उस समय तक स्वयं ईश्वर पूरी तरह घड़ा नहीं गया था। भगवान बुद्ध के लगभग तीन सौ वर्ष बाद तक ईश्वर की कल्पना उत्तरोत्तर विकसित और परिवर्धित होती रही है । पातञ्जलि के समय तक कहीं जाकर “ईश्वर” का वह अर्थ जो आजकल ग्रहण किया जाता है, जड़ी भूत हुआ है। किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि पालि-वाङमय में ‘ईश्वर’ का खण्डन है ही नहीं। अंगुत्तर निकाय में भगवान बुद्ध का यह वचन सुरक्षित है, “भिक्षुओं, कुछ लोग कहते हैं कि यह सृष्टी ईश्वर-कृत है, तब तो वह ईश्वर भी बड़ा निर्दयी होगा जिसने ऐसी दुःखपूर्ण सृष्टी की रचना की है।”

कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने ‘महायान’ और ‘हीनयान’ के नाम सुन रखे हैं। उन्होंने कहना शुरू किया है कि ‘हीनयान’ में यदि ईश्वर नहीं है, तो उससे यह सिद्ध नहीं होता कि बौद्ध-धर्म अनीश्वरवादी है, क्योंकि महायान में तो ‘ईश्वर’ है। ऐसे लोगों को पता नहीं कि महायान में ही ‘ईश्वर’ का स्पष्ट खण्डन है और बड़ा प्रखर है। वहाँ ईश्वर-कर्तृत्व-वाद को मूर्खो की जड़ता का एक लक्षण तक कहा गया है।

जो बात ‘ईश्वर’ के बारे में कही जाती है, अथवा जो भ्रान्ति जान बूझकर ‘ईश्वर’ के बारे में फैलाई जाती है, वैसी ही प्रान्ति’आत्मा’ के बारे में भी फैलाई जाती हैं। कहां जाता है कि भगवान बुद्ध ने ‘आत्मा’ का कहीं खण्डन नहीं किया अथवा उन्होंने ‘आत्मा’ के अस्तित्व को कहीं भी, कभी भी, अस्वीकार नहीं किया। भगवान बुद्ध ने संसार भर के चिंतन-जगत को जो सब से बड़ी देन दी हैं, वह उनका अनात्मवाद ही है। उन्होंने आत्मवाद को “सम्पूर्ण मूर्खता” या “परिपूर्ण बाल- धर्म” कहा है।

‘ईश्वर’ तथा ‘आत्मा’ के लिये बौद्ध-धर्म में कोई स्थान न होना, कुछ लोगों की दृष्टि में बौद्ध धर्म की कमी है। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई कहे कि किसी भी स्वतंत्र आदमी के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी न होना, उसकी कमी है।

जिनका उद्देश्य ही है बौद्ध-धर्म के विषय में अपने मनों में व्याप्त अज्ञान को उत्तरोत्तर बढ़ाते जाना, वे बौद्ध धर्म में चातुवर्णी व्यवस्था के न होने को भी उसको एक कमी मानते हैं। जब तक चातुवर्ण है, तब तक जाति-पाँति है। जब तक जाति-पाँति है, तब तक छूत छात है। सरकार ने छूतछात को तो कानूनी अपराध ठहराया है, लेकिन जिस जात-पांत और चातुवर्णी व्यवस्था के वृक्ष पर छूत-छात के फल फूल लगते हैं, उस वृक्ष को सरकार मजे में सींच रही है।

जब बबूल के पेड़ लगाये जा रहे हैं, तो आम के फल कहां से खाये जा सकते हैं !

बौद्ध-धर्म के बारे में जब और कुछ कहने को नहीं रह जाता, तब इतिहास के साथ खिलवाड़ की जाती है। एक ओर अपने आपको “बुद्धावतार” के युग में रहनेवाले कहकर बौद्ध धर्म के प्रति अपनत्व दर्शाया जाता हैं, दूसरी ओर, शंकराचार्य ने बौद्ध-धर्म को निकाल बाहर किया, कहकर शंकर गौरव-गान किया जाता है। भगवान बुद्ध को किसी विष्णु का अवतार

कहना और स्वीकार करना बौद्ध धर्म की जड़ पर ही कुल्हाड़ी चलाना है। जब भगवान बुद्ध ने किसी अवतार-वाद को ही स्वीकार नहीं किया, तो स्वयं उन्हें ही किसी का भी अवतार कैसे कहा जा सकता है ? जहाँ तक शंकराचार्य की बात है, उसका समय ही अनिश्चित है। सामान्यतया उसका समय सातवीं-आठवीं शताब्दी कूता जाता है। यदि शंकराचार्य ने सातवी आठवीं शताब्दी में ही बौद्ध-धर्म को देश निकाला दे दिया था, तो बौद्धों के नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी आदि सभी बौद्ध विश्वविद्यालय ११ वीं शताब्दी तक कैसे फूलते-फलते रहे ! तिब्बत आदि देशों में जो महान बौद्ध पण्डित धर्म प्रचारार्थ पधारे, वे सब इन्ही विश्वविद्यालयों में से गये थे ।

एक और भ्रम, जो सब से अधिक प्रचलित है और प्रचारित किया जाता है, वह यह है कि भगवान बुद्ध की “ अहिंसा परमो धर्मः” शिक्षा देश पराधीन बनाने का कारण बनी । मैं समझता हूं जिस समय यह देश पहले फ्रांसीसियों और बाद में अंग्रेजों के आधीन हुआ, उस समय बौद्ध धर्म यहाँ था ही नहीं। उससे पहले जब मुगल आक्रामकों से पराजित हुआ, तो इसीलिये कि अपनी जाति-पांति के कारण भारतीय सैनिक एक जगह अपना खाना पकाना तक नहीं कर सकते थे। एक साथ कंधे से कंधा भिडाकर लड़ना तो दूर की बात है।

फिर यह जिस ” अहिंसा परमो धर्मः” को इतना उछाला जा रहा है वह तो “महाभारत” का वचन है। बौद्ध त्रिपिटक में कहीं है ही नहीं। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की सूक्ति को चरितार्थ न कर वे ही लोग बतायें कि जब उनके ‘महाभारत’ में ‘अहिंसा परमो धर्मः” है, तो उन्होंने ही ‘महाभारत’ क्यों किया ?

भगवान बुद्ध ने कभी भी कहीं भी गृहस्थों को “एकान्तिक अहिंसा” का आदेश नहीं दिया। यही कारण है कि जब भारत पराधीन हो गया था, तब भी सिंहल के बौद्ध अपने देश की राजधानी कैण्डी की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से संघर्ष कर रहे थे। यही कारण है कि जब भारत पराधीन हो गया था, तब भी बर्मा के बौद्ध अपने देश की राजधानी मान्डले को स्वतंत्र बनाये रखने के लिये युद्ध कर रहे थे।

अनीश्वरवादी तथा अनात्मवादी होने से बौद्ध-धर्म बुद्धि स्वातंत्र्य का धर्म है, चातुवर्णी व्यवस्था अथवा अव्यवस्था का समर्थक न होने से बौद्ध धर्म मानवीय समतावाद का धर्म है और सभी प्रकार की डिकटेटर-शिप का विरोधी होने से बौद्ध धर्म प्रजातंत्रवाद का धर्म है।

स्वतंत्रता, समानता, समता के साथ-साथ जीवन के हर क्षेत्र में न्याय की स्थापना करना भी बौद्ध धर्म का एक लक्ष्य है। हमारा संविधान भी इन्ही चारों शिला-स्तम्भों पर खड़ा है।

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