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क्योंकि बुद्ध-धर्म के चार आर्य-सत्यों में पहला सत्य दुःख सत्य है, दूसरा दुःख समुदय सत्य है, तीसरा दुःख निरोध सत्य है और चौथा दुःख निरोध गामिनी दुःख के विनाश की और ले जाने वाला मार्ग सत्य है। इसलिये कुछ लोग अज्ञानवश बुद्ध धर्म को दुःखवाद या निराशावाद का धर्म समझते हैं, और दूसरे कुछ लोग स्वार्थवश इसे ऐसा प्रचारित करते हैं। ऐसे लोगों को न बुद्ध धर्म का क, ख, ग भी मालूम है और न निराशावाद का भी । बुद्ध धर्म की शिक्षा है कि दुःख है और दुःख से मुक्ति भी है। किन्तु दुःखवाद या निराशावाद का कहना है कि दुःख है और दुःख से मुक्ति नहीं है।

कामविचर लोक में ही विचरने वाले पृथक जनों की पांचो इंद्रियों और उनके विषयों के संसर्ग से जो अल्पकालीन शारीरिक तथा मानसिक सुख मिलता है, उस ‘सुख’ से कही पुनीततर वह ‘प्रीति’ है जो इन विषयों से विरत रहने वाले, ब्रह्म-विहारों में विचरने वाले योगियों को प्राप्त होती है। भगवान बुद्ध का धर्म हमें उस ‘प्रीति’ की ओर ले जाने वाला धर्म है। धम्मपदमें कहा ही है-

धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा

अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो ॥

जो पण्डितजन हैं, वे प्रमुदित मन से धर्म-प्रीति का आनंद लेते हुए सुख-पूर्वक रहते हैं। ऐसे जन आर्य-मार्गपर सदा आरूढ़ रहते हैं।

जिन ईसाइयों तथा इतर धर्मियों ने बौद्ध धर्म को दुःखवाद तथा निराशावाद का धर्म कहा है, वे अपने बनाये हुये चक्रव्यूह में स्वयं फंस गये हैं। उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ा है कि एशिया के बर्मा आदि अनेक देश में के लोग ‘बौद्ध’ हैं और यह भी स्वीकार करना पड़ा है कि वे ‘बौद्ध’ सापेक्ष दृष्टि से इतर धर्मियों की अपेक्षा आनंदपूर्वक जीवन बिताते हैं और तब उन्हें यह कहते और प्रचारित करते स्वयं लज्जा आने लगी है कि बुद्ध धर्म दुःखवाद या निराशावाद का धर्म है।

जो धर्म बिना किसी पण्डे – पुजारी की मध्यस्थता के, बिना किसी अवतार या पैगम्बर या खुदा के बेटे पर विश्वास लाने की मजबूरी के बिना किसी देवता या ईश्वर की परावलम्बता बिना किसी सदाकालिक नरक में पड़ने के भय या वैसे ही सदाकालिक स्वर्ग में जा सकने के लालच के, इसी पृथ्वी पर रहते समय इसी छह फुट के शरीर में दुःख के संपूर्ण निरोध का पथ उजागर करता , उस धर्म से बढ़कर किसी को भी कल्याण पथ पर अग्रसर करने वाला दूसरा कौनसा धर्म है।

धम्मपद की ही कुछ और गाथाएं हैं- सुसुखं वत ! जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो । सुसुखं क्त ! जीवाम आतुरेसु अनातुरा सुसुखं वत ! जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं पीतिभक्खा भाविस्माम देवा आभस्सरा यथा ॥ हम बैरियों में अबैरी बने रहकर, आतुरों में अनातुर बने रहकर, आसक्ति में रत रहने वाले में अनासक्त बने रहकर उसी प्रकार सुख से रहते हैं, जैसे आभस्सर लोक के देवता ।

आभस्सर लोक के देवता एक मानवी कल्पना है। वे चाहे सुखरुप रहते हों और चाहे न भी रहते हो, किन्तु भगवान् बुद्ध ने स्वयं अपने बारे में कहा है-

‘भिक्षुओं, जो लोग सुख पूर्वक सोते हैं, उनमें मैं एक हूं।’

जिसका मन राग से अनुरक्त है, क्या वह सुख की नींद सो सकता है ? कभी नहीं। जिसका मन द्वेष से दूषित है, क्या वह सुख की नींद सो सकता है? कभी नहीं । जिसका मन मोह से मूढ है, क्या वह सुख की नींद सो सकता है? कभी नहीं।

भगवान बुद्ध का धर्म राग द्वेष तथा मोह से मुक्ति दिलाने वाला धर्म है।

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