बुद्ध का चलना चलना नहीं कहा जाता था । उनके चलने को ही विहार कहते थे। पूरा त्रिपिटक इन वाक्यांशों से भरा पड़ा है – जैसे भगवान एक समय राज गिरी में विहार करते थे, भगवान एक समय श्रावस्ती में विहार करते थे, भगवान एक समय वैशाली में विहार करते थे आदि ।
आखिर क्या अंतर है – चलने और विहार करने में?
चलना हमेशा होता है कहीं पहुंचने के लिए लेकिन जो पहुंचा हुआ है उसका चलना चलना नहीं रह जाता। क्योंकि अब उसे कहीं पहुंचने के लिए नहीं चलना है उसकी यात्रा पूरी हो चुकी है। वह अपने गंतव्य तक, बुद्धत्व तक पहुंच चुका है।
चलने और पहुंचने का अर्थ अंतर यात्रा से है। इस रूप में बुद्ध के चलने को विहार कहने का संबंध उससे है। जिसकी अंतर यात्रा पूरी हो गई है।
जिसकी अंतर यात्रा पूरी हो गई है वह अब चलेगा क्यों?? वह टहलेगा, चक्रमण करेगा, विहार करेगा, चारिका करेगा
विहार शब्द में गति है। यदि बुद्ध अपनी गंधकुटी में बैठे भी हो तब भी पाली ग्रंथों में मिलता है कि भगवान अपनी गंधकुटी मे विहार करते थे । विहार निष्क्रिय शब्द नहीं है। यह सक्रिय और गत्यात्मक शब्द है अर्थात इसमें गति है।
नमोतस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्य।