Mon. Dec 23rd, 2024

“मै पढ़ना चाहता हूँ मेरी आर्थिक स्थिति शोचनीय है, आप मुझे श्रामणेर-भिक्षु बना लीजिये ।” इस आशय का एकाध पत्र प्रति दूसरे-तीसरे दिन आ जाता है।

प्रव्रज्या को कालेज की पढ़ाई से कुछ लेना देना नहीं, और किसी की आर्थिक स्थिति के भी अच्छे बुरे होने से उसे कुछ सरोकार नहीं।

अनपढ़ भी प्रवृजित हो सकता है और नहीं भी हो सकता। पढ़ा-लिखा भी प्रव्रजित हो सकता है और नहीं भी हो सकता। पढ़ने लिखने की इच्छा रखनेवाला भी प्रव्रजित हो सकता है और नहीं भी हो सकता, आर्थिक स्थिति “शोचनीच” वाला भी प्रवृजित हो सकता है और नहीं भी हो सकता, अच्छी आर्थिक स्थिति वाला भी प्रवृजित हो सकता है और नहीं

भी हो सकता जिसे प्रव्रजित होना है, उस के लिये ये सभी बातें गौण है। तब वह कौन सी बात है, जो प्रव्रज्या का प्राण है, जो प्रवृज्या का केन्द्र बिन्दु है। परम्परागत उत्तर है, दुःख के निरोध की उत्कट अभिलाषा। जिस समय भी टोई कुल-पुत्र अपने. आचार्य अथवा उपाध्याय से प्रव्रज्या की याचना करता है, तो वह कहता है-

” सव्य दुःखनिस्सरण निव्वाण सच्छिकरणत्थाय

इमं कासावं दत्वा पब्याजेथ मं धन्ते, अनुकम्पं उपादाय।”

इसका अर्थ है कि सभी दुखों का जो एकान्तिक-निरोध है, सभी दुःखों का जो सम्पूर्ण अन्त है, उस निर्वाण-प्राप्ति को साक्षात् करने के लिये, अर्थात् सभी दुःखों का सम्पूर्ण नाश करने के लिये भन्ते। मुझे यह काषाय चीवर देकर प्रव्रजित कर दें।

इसका मतलब हुआ प्रव्रज्या का एक मात्र उद्देश्य है दुःख का दूरी-करण। कालेज में पढ़ने की इच्छा से ली गई प्रव्रज्या उद्देश्य बाह्य प्रव्रज्या है, आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण ग्रहण की प्रव्रज्या उद्देश्य बाह्य प्रव्रज्या है।

प्रश्न पूछा जा सकता है कि भूतकाल में दुःख रहा हैं, वर्तमान-काल में भी दुःख है और भविष्यत् काल में भी दुख हो सकता है, तब प्रव्रज्या का उद्देश्य कौन से दुःख का निरोध करना है ? भूतकाल के दुःख का निरोध ? वर्तमान काल के दुःख का निरोध ? अथवा भविष्यत् काल के दुःख का निरोध ? उत्तर है-भूतकाल के दुःख का कोई भी क्या निरोध करेगा, वह तो जो भुगतना था, भुगता जा चुका है। और वर्तमान-काल के दुःख का भी कोई क्या निरोध करेगा, वह तो वर्तमान ही है, वह तो सिर पर ही है। तब जो शेष है अर्थात् वह दुःख जो अभी आया नहीं है, किन्तु जो हमारी अविद्या और हभारी तृष्णा के कारण हमें किसी भी क्षण मस ले सकता है, उसी भावी-दुःख का निरोध करना ही प्रवृज्या का एक मात्र उद्देश्य है।

दूसरा प्रश्न पूछा जा सकता है कि दुःख तो अपना भी होता है, पराया भी होता है। यहाँ दुःख के नाश से कौन सा दुःख अभिप्रेत है? अपना या पराया? उत्तर है, दोनों। क्योंकि जो व्यक्ति अपने ही दुःख को दूर नहीं कर सकता, वह किसी दूसरे के दुःख को दूर कर सकेगा, इसकी सम्भावना नहीं। और जिसने केवल अपने ही दुःख को दूर करना जीवन का परमार्थ

बना रखा है, यदि कहीं वह उसमें सफल भी हो गया, तो भी उसने कोई बड़ा काम नहीं किया। केवल अपने ही दुःख को दूर करने की इच्छा और उसी के लिये प्रयास करना यह भी कोई काम में काम है।

आचार्य शान्ति-देव की वाणी है। मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः । तैरेव ननु पर्याप्त मोक्षेण अरसिकेन किं ?

दूसरे प्राणियों को (दुःख से) मुक्त होते देख कर मेरे मन में जो आनन्द की हिर्लोरें उठती है. वे ही मेरे लिये संतोष जनक हैं. इस नीरस व्यक्तिगत (मोक्ष) को लेकर मै क्या करूंगा ?

और यह आत्म-हित तथा पर-हित का भेद भी केवल शास्त्रीय चर्चा का ही विषय मालूम देता है। अन्यथा बिना आत्म-हित साधे, बिना पर-हित करने की योग्यता प्राप्त किये, पर-हित किया ही कैसे जा सकता है और जो पर-हित करने में लगा रहता हैं. उसका आत्म-हित तो अनायास सघ जाता है। आचार्य शान्ति-देव की ही अमर-वाणी है-

ये केचित् दुःखिता लोके सर्वे आत्म सुखेच्छया, ये केचित् सुखिता लोके सर्वे अन्य सुखेच्छया ।।

(इस संसार में जितने भी प्राणी दुःखी हैं, वे केवल इसी लिये दुःखी हैं कि वे अपने को ही सुखी बनाने के प्रयास में लगे रहते हैं, और संसार में जितने भी प्राणी सुखी हैं, वे केवल इसी लिये सुखी है कि वे दूसरों को भी सुखी बनाने के प्रयास में लगे रहते हैं।)

आगामी आषाढ़-पूर्णिमा को-जिस दिन भगवान बुद्ध ने सारनाथ में प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन किया था- पवित्र दीक्षाभूमि पर प्रव्रज्या की कामना करने वालों कुछ कुलपुत्रों की प्रव्रजित होने की इच्छा है। यूं तो प्रव्रज्या एक ही प्रकार की है। किन्तु व्यवहारिक दृष्टि से उसके दो भेद हो ही गये हैं-

१) सीमित समय के लिये प्रव्रज्या ।

२) स्थायी प्रव्रज्या । जो कुल पुत्र सीमित समय के लिये प्रव्रज्या महण करना चाहें उन्हें, आषाढ़-पूर्णिमा से आश्विन-पूर्णिमा तक के तीन महीने तक प्रव्रजित रहना ही होगा। तीन दिन की प्रव्रज्या, एक सप्ताह की प्रव्रज्या आदि के लिये अवकाश नहीं रहेगा।

जो स्थायी प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे, वे स्वेच्छा से जब तक चाहेंगे, प्रव्रजित रह सकेंगे। कम से कम तीन महिने तक प्रव्रजित रहना सभी के लिये बंधनकारक है।

जो कुल-पुत्र सीमित समय के लिये प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहेंगे अथवा जो स्थायी प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहेंगे उन सभी को अथवा उनके दायकों को उन-उन प्रव्रज्यापेक्षियों के लिये पात्रों तथा चीवरों की व्यवस्था करनी होगी। भिक्षा पात्रों तथा चीवरों के बारे में भिक्षु निवास से अपेक्षित मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता हैं।

जो भी प्रव्रजित होना चाहेंगे, उन्हें भिक्षाजीवी बनने के लिये तैयार रहना होगा, निमंत्रण आदि अतिरिक्त रूप में ही स्वीकार किये जा सकते है।

आषाढ़-पूर्णिमा से आश्विन-पूर्णिमा तक के तीनों महीनों के नब्बे दिनों में स्थानीय तथा दूसरे नगरों के बौद्ध उपासकों से अपेक्षा रखी जायगी कि वे भिक्षु-निवास में रहने वाले भिक्षुओं तथा श्रामणेरों को वर्षा-वास के दिनों में भोजन दान देते रहें। इस ‘दान’ की व्यवस्था

‘भिक्षु-निवास’ के माध्यम से की जा सकेगी। प्रव्रजितों को तीन महीने की अवधि में निम्नलिखित तीन कार्य सम्पन्न करने होंगे-

१) बौद्ध जीवन पद्धति की सम्पूर्ण जानकारी तथा अभ्यास ।

२) पालि भाषा का आरम्भिक परिचय-कम से कम धम्मपद तथा अंगुत्तर-निकाय के तीन निपात ।

३) ‘शमथ’ तथा ‘विपश्यना‘ घ्यान-विधि का अभ्यास ।

यह माना ही जायगा कि जो ‘बौद्ध’ होंगे, वे ही इस दीक्षा-विधि के अनुसार दीक्षित हो सकेंगे। अबौद्ध भी इस विधि में भाग ले सकते हैं। किन्तु किसी का भी उस दीक्षा-विधि में दीक्षित होने से पूर्व त्रिशरण तथा पंचशील ग्रहण करना अनिवार्य होगा।

भगवान बुद्ध के ‘धर्म’ के दरवाजे सभी वर्गो, सभी वर्गों, सभी जातियों, सभी मजहबों के अनुयाइयों के लिये खुले हैं। इस विषय में किसी भी तरह की कोई पाबन्दी नहीं है।

प्रव्रज्या को अपेक्षा रखने वाले कुलपुत्र १ जुलाई से पूर्व छपे हुए फार्म भरकर अपना स्थान स्थिर और निश्चित करा ले सकते हैं।

यूं ‘धर्म’ का अभ्यास करने में पुरुषों की ही तरह स्त्रियों की भी समान योग्यता मानी

गई है। किन्तु इस अवसर पर किसी को भी ‘श्रामणेरी “भिक्षुणी” की दीक्षा नहीं दी जा सकेगी। स्थायी रुप से प्रव्रजित होने वाले कुल-पुत्रों की ‘उपसम्पदा’ की जिम्मेदारी भिक्षु-निवास पर रहेगी।

यो हवे दहरो भिक्खु युञ्जते बुद्ध सासने ।

सो इमं लोकं पभासेति, अब्धा मुत्तोव चन्दिमा।

(जो भी तरुण ‘भिक्षु’ बनकर बुद्ध-शासन की सेवा में रत होता है, वह बादलों से मुक्त चन्द्रमा की तरह इस सारे लोक को प्रकाशित करता है।)

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