Mon. Dec 23rd, 2024

सारञ्च सारतो जत्वा असारच असारतो । ते सारं अधिगच्छन्ति सम्मासङ्कय्पगोचरा ॥

तथागत द्वारा उपदिष्ट ‘धम्मपद’ की यह गाथा है, जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति ‘सार’ को ‘सार’ करके ग्रहण करता है, और ‘असार’ को ‘असार’ करके वही विचारवान व्यक्ति किसी भी तत्व को प्राप्त करता है।

बौद्ध धर्म का जो ‘सार’ है, वही है, तथागत का शाश्वत संदेश। सबसे पहली बात जो हमें तथागत के बारे में स्पष्ट होनी चाहिए, वह यह है कि यद्यपि यह कहा जाता है कि उन्होंने एक नये धर्म की स्थापना की, किन्तु यदि हम धर्म को मजहब के अर्थो में ग्रहण करें तो हम कह सकते हैं कि भगवान बुद्ध ने किसी भी नये धर्म या मजहब की स्थापना नहीं की। उन्होंने अपने समय के सभी धर्मों को, अपने समय के सभी मजहबों को खण्डित-खण्डित कर डाला।

उनसे जब-जब पूछा गया कि आप किस दृष्टि के हैं, अथवा आप किस मत के हैं तो उनका सदा एक ही उत्तर रहा। वह उत्तर था “मैंने सभी मतों को जान लिया। मैं किसी भी एक दृष्टि का नहीं। मैं किसी भी एक मत का नहीं हूँ।”

भगवान बुद्ध के दो प्रधान शिष्यों सारिपुत्र तथा मौगल्यायन में से एक ने भगवान बुद्ध के शाश्वत संदेश का सार इन शब्दों में व्यक्त किया है। उनका कहना था-

ये धम्मा हेतुप्पभवा, तेसं हेतु तथागतो आह ।

तेसं च यो निरोधो, एवं वांदी महासमणो ।।

जिन घटनाओं, जिन स्थितियों, जिन परिस्थितियों अर्थात, जिन धर्मों का जो ‘हेतु’ है उस ‘हेतु’ को तथागत ने बता दिया है और तथागत ने बता दिया है कि वे घटनायें, वे स्थितियां, वे परिस्थितियां किस प्रकार निरुद्ध होती हैं। इतना ही कहा जा सकता है तथागत का ‘वाद’। स्वयं तथागत ‘वादों से परे थे। उनकी शिक्षाओं को वादों’ का स्वरुप देनेवाले तो दूसरे ही रहे हैं।

यह जगत कैसे अस्तित्व में आया, यह एक शाश्वत प्रश्न है। इसके उत्तर हैं-

(१) जगत का कोई हेतु नहीं। जगत का कोई कारण नहीं। सारा जगत व्यर्थ का अललटप्पु अस्तित्व है।

(२) यह जगत किसी सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वन्तरयामि, सर्वव्यापक परमात्मा की रचना है। यूं कहने को तथागत को दोनों में से एक भी ‘वाद’ माह्य नही था। उनका अपना वाद था ‘प्रतीत्य समुत्पाद’

हम किसी भी चीज को देखते हैं, तो प्रश्न पैदा होता है कि यह चीज कैसे अस्तित्व में आई ? अहेतुवाद का कहना है कि प्रत्येक चीज यूं ही अस्तित्व में आ जाती है, जैसे जंगली घास या गोबर के कीड़े। ईश्वर-निर्माणवाद का कहना है कि प्रत्येक चीज का कोई न कोई निर्माता होना चाहिए जैसे घड़ेका बनाने वाला कुम्हार। प्रतीत्य समुत्पाद अहेतुवाद और ‘ईश्वर कर्तृत्ववाद’ ‘दोनों को अस्वीकार कर ‘प्रत्ययों’ को ही ही वस्तुविशेष के अस्तित्व में आने का कारण मानता है। जिसके होने से कोई चीज हो और जिसके न होने से कोई न हो। वही वस्तु या क्रिया ही उस चीज का ‘प्रत्यय’ कहलाता है। दूध के होने से दही होता है, दूध के न होने से दही नहीं होता, दूध ‘दहीं’ का प्रत्यय है। ‘पानी’ के होने से बर्फ जमती है, पानी के न होने से बर्फ नहीं जमती; पानी बर्फ का प्रत्यय है।

ईश्वर-निर्माणवाद के साथ ही जुड़ा हुआ है ‘आत्मवाद’। किसी भी वस्तु का दो तरह से विश्लेषण किया जा सकता है। अंग अंगी के हिसाब से अथवा अंगों का समूह मात्रा मान लिए जानेके हिसाब से । एक कुर्सी हैं। आप चाहें तो कह सकते हैं कि इस कुर्सी की चार टांगे हैं, इस कुर्सी की एक सीट है, इस कुर्सी की एक पीठ है, यानी अपनी चार टांगों अपनी सीट और अपनी पीठ से पृथक कुर्सी-विशेष का कोई अस्तित्व है। लेकिन वह कुर्सी है कहाँ ? इसी लिए कुर्सी का एक दूसरा विश्लेषण भी है और वह यह कि चार टांगों, सीट, पीठ आदि अवयवों के समुह काम मात्र कुर्सी है। इन अवयवों से पृथक कोई कुर्सी नहीं। पहला दृष्टिकोण हमें आत्मवादी बनाता है; दूसरा ‘अनात्मवादी’ । पहले दृ‌ष्टिकोण

के अनुसार ‘आदमी’ अपने अंगों का स्वामी है। वह अपने हाथ, पांव, कान, नाक, मुंह आदि अंगों से पृथक व्यक्ति विशेष है; वह अंगी है; वह अवयवी है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार अंगों के समूह मात्र को ही जगत-व्यवहार चलाने के लिए ‘अंगी’ का नाम दिया गया है। ‘अवयवों के संग्रह मात्र को ही ‘अवयवी’ कहा गया है। यही है तथागत के ‘अनात्मवाद’ की स्पष्ट भूमिका ।

किसी भी बात के सत्यासत्य होने का कुछ न कुछ प्रमाण होना चाहिए। हमारे सामने एक पुस्तक रखी है, उस पुस्तक का प्रत्यक्ष ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। किन्तु इस प्रमाण में एक दोष है। जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष असिद्ध है, उनके अस्तित्व से ही सर्वथा इनकार करना पड़ता है। इंजन की सीटी मात्र सुनकर जो इंजन के अस्तित्व पर विश्वास किया जाता है वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता। वह अनुमान प्रमाण के ही अन्तर्गत आता है। कुछ चिन्तक इन दोनों प्रमाणों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रमाण को भी मानते हैं। उस प्रमाण का नाम है शब्द प्रमाण । ‘आत्मा’ का अस्तित्व प्रत्यक्ष-सिद्ध नहीं, अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध नहीं। तब भी उसका अस्तित्व माना जाता है। क्यों? शास्त्रयोनित्वात्, शास्त्र कहता है, इसीलिए ‘आत्मा’ है। ‘आत्मा’ ही नहीं, ‘परमात्मा’ का भी अस्तित्व एक मात्र ‘शास्त्रयोनित्वात’ पर ही निर्भर करता माना जाता है। बौद्ध धर्म ‘शास्त्रयोनित्वात्’ या शब्द-प्रमाण को नहीं ही मानता । तथागत ने अपने श्रावकों को स्वंयं अपने वचनों की परीक्षा करने का भी बुद्धि-स्वातंत्र्य दिया है। उनका ‘श्वाश्वत संदेश है-परीक्ष्य मद्वचो माह्यं न तु गौरवात- मेरे अपने वचनों को भी अपनी बुद्धि, अपने अनुभव की कसौटी पर कसकर ग्रहण करो, मेरे प्रति गौरव की भावना होने से उन पर बिना विचार किये, उन्हे यूं ही न गटक जाओ।

मनुष्य का आचरण श्रेष्ठ दर्शन से ही परिचालित होता है। किन्तु ऐसा भी देखा जाता है कि ऊंचे से ऊंचा दर्शन भी दिमाग की खिलवाड़ मात्र बन कर रह जाता है। इसलिये तथागत ने सम्यकदृष्टि के साथ साथ सम्यक संकल्पों का आदेश दिया हैं। सम्यक संकल्पों का ही नहीं सम्यक-वाणी का भी। जिस वाणी में मिसरी की सी मिठास हो, यथार्थ हो, किसी की चुगली-चकारी न हो, और वह हो सर्व कल्याणकारी, हितकारिणी, उसी वाणी को सम्यक

वाणी कह सकते हैं। सम्यक कर्मान्त का मतलब है अकुशल कर्मों से बचे रहना और कुशल कर्मों में लगे रहना। सम्यक आजीविका भी आर्य अष्टांगिक मार्ग का आवश्यक अंग है। बौद्ध उपासक के लिए जो धन्ये सर्वथा वार्जित हैं, उनमें एक है शराब बेचने का धन्या। सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति तथा सम्यक-समाधि चैतासिक क्रियायें हैं। अकुशल-प्रवृत्तियों में न उलझ, कुशल-प्रवृत्तियों में लगे रहना सम्यक व्यायाम है और कुशल चेतनाओं के प्रति जागरूकता उसी प्रकार सम्यक स्मृति है, जैसे कुशल-प्रवृत्तियों की एकाग्रता सम्यक समाधि ।

व्यक्ति को प्रधान रूप से शील-पालन की आवश्यकता इसीलिए है क्योंकि वह सामाजिक प्राणी हैं। यदि समाज न हो, आदमी जंगल में अकेले पेड़ की तरह अकेला हो, तो शील पालन का भी क्या प्रयोजन ? निस्सन्देह समाज व्यक्तियों से ही बनता हैं। लेकिन समाज भी व्यक्तियों को बनाता है। दुःशील समाज में शीलवान व्यक्ति का जीते-रहना तक दुर्लभ हो जाता है। इसीलिए भगवान बुद्ध ने ऐसे समाज को ही आदर्श समाज कहा है, जिसमें आदमी का मूल्य उसके जन्म के हिसाब से न कूता जाता हो, बल्कि उसके कर्मों के हिसाब से कूता जाता हो। भगवान बुद्ध का शाश्वत संदेश है-

न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणों ।

कम्पना वसलो होति, कम्पना होति ब्राह्मणो ।।

(जन्म किसी को भी ऊँचा-नीचा नहीं बनाता, कर्म ही है जो आदमी को ऊँचा-नीचा बनाता है।)

आदमी किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो, किसी भी वर्ग का हो, उसके सामने व्यवहारिक समस्यायें आती ही रहती हैं। वह स्वयं तो किसी का अहित नहीं चाहता, लेकिन गलती से जो लोग प्रमादवश उसे अपना अहितचिन्तक मानते हैं वे उसके साथ अवाञ्छनीय व्यवहार करते हैं। तब उसके भी मन में आता है कि ईंट का जबाब पत्थर से दे, अगला एक लगाये तो वह उसे दो चपत रसीद करे। ऐसे आदमी को भगवान बुद्ध ने सत्पथ दिखाया है। कहा है-

अक्कोधेन जिने कोधं, असाधु साधुना जिने

जिने कदरियं दानेन, सच्चेन अलीकवादिनं ।

(क्रोध को शान्ति से जीतें, असाधुता को साधुता से जीतें, कंजूस को उदारता से जीतें, और मिथ्या भाषी को अपनी सत्यवादिता से जीतें ।)

ऐसा क्यों करें? कोरी आदर्श-वादिता के कारण? नहीं, यह सोलह आने व्यवहारिक उपदेश है। क्योंकि

नही वेरेण वेराणि, सम्पन्तीध कुदाचनं ।

अवेरेन च सम्पन्ति, एस धम्मो सनन्तनो ।।

वैर ने कभी वैर को शान्त नहीं किया।

जब भी कभी किसी का वैर शान्त हुआ है, तो अवैर से ही शान्त हुआ है, यही प्राचीन से प्राचीनतर इतिहास है।

आज के दिन भगवान बुद्ध के इस शाश्वत संदेश की याद आना स्वाभाविक है। आज का दिन तीन तीन तरह से पवित्र दिन माना जाता है। आज के दिन लगभग आधा संसार उस करुणाकर की करुणा का स्मरण करता है, और उस प्रज्ञाधन के प्रति नत-मस्तक होता है।

Related Post